शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

तुम्ही एक समर्थ हो!(यह कविता मैने उनके जन्म दिन पर लिखा था अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिये )

शब्द मैने सर्वथा पाया तुम्ही से,
तुम्हारे ही स्वरूप को पन्क्तियो मे चुराया तुम्ही से.
तेरे विलक्षण स्वरूप से,
शब्द मेरे मन्झकर खुद सवरती रही,
आशीष अक्षरो से लिपटकर,
जब जब आन्चलो से तेरे झरती रही.



सत्य ने मेरे आधार पाया,
जब जब राधिके के रूप मे मैने, तुझसे कृष्ण का निश्छल प्यार पाया.
गद्य ने मेरे विस्तार पाया,
रूप मे तेरे जब कभी , शब्द ने मेरे श्रृंगार पाया.
मुक्त कण्ठ से स्वीकारने मे भला सन्कोच क्यो?
गन्गा के पावन स्वरूप मे सखे तुझमे , मैने सदा ईश्वर का अवतार पाया.



महाकाव्य के पृष्ठों से प्रस्फुटित,
विविध प्रेरक प्रसन्गो का प्रवाह हो तुम.
तुम कुरूक्षेत्र के कर्मस्थली मे,
मधुसूदन के मुख से निकली गीता का स्वरूप हो.
तुम्ही मन्दिर, तुम्ही मस्जिद
तुम्ही गिरजा की प्रार्थना और आरती का एक रूप हो.




तुम अर्ध्य हो, अमर्त्य हो,
निशा के बीच पथ प्रशस्त करने मे तुम्ही एक समर्थ हो.
आज तुम्हारे जन्म के बत्तीसवे बरस पर,
सिवा सम्मान के पास मेरे क्या भला है?
यह लडखडाती वाणी कुछ कहने को बेताब है, पर क्या कहे ?
जब कापता कलम ही, किन्चित मात्र भी कुछ शेष लिखने मे असमर्थ हो ?

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