बड़ी हसरत हुआ करती थी उन दिनों,
तुमसे मिलने की,
तुम्हारे कुछ पल चुराकर तुमसे बतिया लेने की।
तुम्हारे व्यक्तित्व के सौंदर्य में समाहित, सागर की गहराईयों को
अपने कर की लंबाईयों से नाप लेने की ।
पर जितना तुम्हे जानता गया,
तुम्हारी गहराईयों में जितना उतरते गया,
तुम उतनी ही और गहरी होती चली गयी ।
आज तक बस सिर्फ तुम्हे नाप ही तो रहा हूं,
यही सोंच कि,
उन गहराईयों में कहीं तो धरातल होगा ।
जब तुम्हे पहले-पहले जाना,
तो मुझे लगा कि तुम अम्बर सी उंची,
आधारहीन धरातल पर खड़ी, फिर भी तनी,
कभी इठलाती,कभी इतराती,कभी अपने रंग में भिगोती
सबको छांव देती वो नीलगगन की श्यामल छतरी हो,
इसीलिये उन दिनों मैं तुम्हे अम्बुद कहा करता था।
तुम्हारी गहराईयों में जब थोड़ा और उतरा,
तो ऐसा लगा जैसे,तुम तो अम्बुज हो,
वो तन्हाईयों और उलाहनाओं के कीचड़ में पलती
अपने गुलाबी नेत्रों की पंखुड़ियां फैलाये
पतितों के बीच पवित्रता की बुलंदियों को छूती,
एक खुशनुमा अहसास ।
इसीलिये कुछ दिनों तक,तुम्हे पंकजा कहने की भूल कर बैठा ।
तुम्हे थोड़ा और जाना,
तप की वेदी पर अपने जीवन की रोज बलि चढ़ाती,
खुद को किसी की पाखण्ड पूजा के संतोष के लिये,
अग्नि होम पर अनल को समर्पित घृत की तरह,
बुद्ध का आत्मिक सौंदर्य, महावीर का त्याग,
रानी लक्ष्मी का क्रोध और तिलक का उद्घोष ।
सबकुछ तो देखा तुममे,
इसीलिये कुछ दिनों तक मैं तुम्हे दामिनी कहता रहा ।
जब तुम्हे थोड़ा और जाना,
तुममे देखा धरा का धीर, धवल क्षीर,
तुम्हारी कभी उफ ना करने वाली पीर।
तुम्हारी अनूठी गाथा और विलक्षण व्यक्तित्व को,
तुम्हारी कविता में उन दिनों तलाशा करता।
तुम्हारे चरित्र को तुम्हारे अक्षरों की परछाई में पढ़ा करता।
और जब ना समझ सका तुम्हे,
तो तुम्हे वसुधा कहने लगा,
और आज तक यही कह रहा हूं ।
कभी तो तुम खुद बताओगे, कि तुम आखिर हो क्या?
शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009
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