अजंता जी !आज भी आपको ढूंढता हूं हर स्त्री में, तलाशता हूं उस व्यक्तित्व को ...
गुरुवार, 10 दिसंबर 2009
गुरुवार, 19 नवंबर 2009
क्या आप इतनी निष्ठुर हैं? परिस्थितियों ने आपको इतना भावनाषून्य बना दिया है कि आपकी नजरों में दूसरों की संवेदनाएं भी महत्वहीन हो जाती है । क्या यूं ही आप मुझे अधूरा जीवन जीने को विवष कर देंगी, यह जानते हुये भी कि मेरे जीवन में आप सर्वप्रथम हैं । आपने मुझे जिस जीवन को फिर से उत्साह के साथ जीने को अपना प्यार देकर उपहारस्वरूप दिया उसे अधूरा उसी मोड़ पर छोड़ कर चली जायेंगी ।
कहीं तो आपकी संवेदनहीनता का अंत होता होगा ना ?
कहीं तो आपकी संवेदनहीनता का अंत होता होगा ना ?
रविवार, 1 नवंबर 2009
कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता...।
कुछ तो वजहें होंगी, कुछ तो अफसाने होंगे ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
निश्चय ही धरती के भीतर,
कुछ तो उथल-पुथल होती होंगी ।
भावनाओं के कोमल सतह पर,
कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कभी भूचाल आते होंगे,
कभी अंदर का लावा पिघलकर,
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।
कोई तो है, जिसके कटु वचनों से आहत होता होगा हर रोज तुम्हारा मान,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता, इस तरह मातमी गान ।
पर्वतों सा मुकुट पर तेरे,
किसी सिरफिरे का शत बार प्रहार होता होगा ।
तुम्हारे केशुओं सा फैली घनी चोंटियों की श्रृंखला में,
किसी मदभरे गज का भीतर तक संघात होता होगा।
टूटती होंगी शिखर छूती टहनियां,
उजड़ती होंगी भीतर कलरव करती खग सी ख्वाईशो के घोसले।
पनाहों के लिये भटकती होंगी,
तुम्हारे भीतर का अंर्तद्वंद ।
और तब टूटती होगी मर्यादा कलम की,
टूटता होगा शब्दों का वह सम्मान ।
पता नहीं क्यों?
जब-जब पढ़ा करता तुम्हे, तब-तब होता ऐसा ही कुछ भान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान।
कोई तुझे अपनी तप्त रश्मियों से दग्ध कर,
कुरेदता होगा रसातल तक ।
तुम्हारे हिमशिखर सा पाषाण इरादे पिघलते होंगे ।
और चक्षु संबंधों का विस्तार पाती होंगी अधर तक ।
बहती होगी सरिता,
समस्त वेदनाओं के करकटों को स्वयं में समेटकर ।
सागर सा धैर्य, मुख का तुम्हारा,
विचलित होता होगा क्षण भर को ।
हृदय में उठती होंगी विशालकाय लहरें ।
डूबती होंगी तटें ना जाने कितनी,
कितनी अभिलाषाएं मृतप्राय सी होती होंगी सतह पर ।
और तब कहीं कागजों पर रेखांकित होती होगी, एक नारी का चोटिल स्वाभिमान ।
ना जाने क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
पता नहीं क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
निश्चय ही धरती के भीतर,
कुछ तो उथल-पुथल होती होंगी ।
भावनाओं के कोमल सतह पर,
कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कभी भूचाल आते होंगे,
कभी अंदर का लावा पिघलकर,
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।
कोई तो है, जिसके कटु वचनों से आहत होता होगा हर रोज तुम्हारा मान,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता, इस तरह मातमी गान ।
पर्वतों सा मुकुट पर तेरे,
किसी सिरफिरे का शत बार प्रहार होता होगा ।
तुम्हारे केशुओं सा फैली घनी चोंटियों की श्रृंखला में,
किसी मदभरे गज का भीतर तक संघात होता होगा।
टूटती होंगी शिखर छूती टहनियां,
उजड़ती होंगी भीतर कलरव करती खग सी ख्वाईशो के घोसले।
पनाहों के लिये भटकती होंगी,
तुम्हारे भीतर का अंर्तद्वंद ।
और तब टूटती होगी मर्यादा कलम की,
टूटता होगा शब्दों का वह सम्मान ।
पता नहीं क्यों?
जब-जब पढ़ा करता तुम्हे, तब-तब होता ऐसा ही कुछ भान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान।
कोई तुझे अपनी तप्त रश्मियों से दग्ध कर,
कुरेदता होगा रसातल तक ।
तुम्हारे हिमशिखर सा पाषाण इरादे पिघलते होंगे ।
और चक्षु संबंधों का विस्तार पाती होंगी अधर तक ।
बहती होगी सरिता,
समस्त वेदनाओं के करकटों को स्वयं में समेटकर ।
सागर सा धैर्य, मुख का तुम्हारा,
विचलित होता होगा क्षण भर को ।
हृदय में उठती होंगी विशालकाय लहरें ।
डूबती होंगी तटें ना जाने कितनी,
कितनी अभिलाषाएं मृतप्राय सी होती होंगी सतह पर ।
और तब कहीं कागजों पर रेखांकित होती होगी, एक नारी का चोटिल स्वाभिमान ।
ना जाने क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
पता नहीं क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009
तुम्ही एक समर्थ हो!(यह कविता मैने उनके जन्म दिन पर लिखा था अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिये )
शब्द मैने सर्वथा पाया तुम्ही से,
तुम्हारे ही स्वरूप को पन्क्तियो मे चुराया तुम्ही से.
तेरे विलक्षण स्वरूप से,
शब्द मेरे मन्झकर खुद सवरती रही,
आशीष अक्षरो से लिपटकर,
जब जब आन्चलो से तेरे झरती रही.
सत्य ने मेरे आधार पाया,
जब जब राधिके के रूप मे मैने, तुझसे कृष्ण का निश्छल प्यार पाया.
गद्य ने मेरे विस्तार पाया,
रूप मे तेरे जब कभी , शब्द ने मेरे श्रृंगार पाया.
मुक्त कण्ठ से स्वीकारने मे भला सन्कोच क्यो?
गन्गा के पावन स्वरूप मे सखे तुझमे , मैने सदा ईश्वर का अवतार पाया.
महाकाव्य के पृष्ठों से प्रस्फुटित,
विविध प्रेरक प्रसन्गो का प्रवाह हो तुम.
तुम कुरूक्षेत्र के कर्मस्थली मे,
मधुसूदन के मुख से निकली गीता का स्वरूप हो.
तुम्ही मन्दिर, तुम्ही मस्जिद
तुम्ही गिरजा की प्रार्थना और आरती का एक रूप हो.
तुम अर्ध्य हो, अमर्त्य हो,
निशा के बीच पथ प्रशस्त करने मे तुम्ही एक समर्थ हो.
आज तुम्हारे जन्म के बत्तीसवे बरस पर,
सिवा सम्मान के पास मेरे क्या भला है?
यह लडखडाती वाणी कुछ कहने को बेताब है, पर क्या कहे ?
जब कापता कलम ही, किन्चित मात्र भी कुछ शेष लिखने मे असमर्थ हो ?
तुम्हारे ही स्वरूप को पन्क्तियो मे चुराया तुम्ही से.
तेरे विलक्षण स्वरूप से,
शब्द मेरे मन्झकर खुद सवरती रही,
आशीष अक्षरो से लिपटकर,
जब जब आन्चलो से तेरे झरती रही.
सत्य ने मेरे आधार पाया,
जब जब राधिके के रूप मे मैने, तुझसे कृष्ण का निश्छल प्यार पाया.
गद्य ने मेरे विस्तार पाया,
रूप मे तेरे जब कभी , शब्द ने मेरे श्रृंगार पाया.
मुक्त कण्ठ से स्वीकारने मे भला सन्कोच क्यो?
गन्गा के पावन स्वरूप मे सखे तुझमे , मैने सदा ईश्वर का अवतार पाया.
महाकाव्य के पृष्ठों से प्रस्फुटित,
विविध प्रेरक प्रसन्गो का प्रवाह हो तुम.
तुम कुरूक्षेत्र के कर्मस्थली मे,
मधुसूदन के मुख से निकली गीता का स्वरूप हो.
तुम्ही मन्दिर, तुम्ही मस्जिद
तुम्ही गिरजा की प्रार्थना और आरती का एक रूप हो.
तुम अर्ध्य हो, अमर्त्य हो,
निशा के बीच पथ प्रशस्त करने मे तुम्ही एक समर्थ हो.
आज तुम्हारे जन्म के बत्तीसवे बरस पर,
सिवा सम्मान के पास मेरे क्या भला है?
यह लडखडाती वाणी कुछ कहने को बेताब है, पर क्या कहे ?
जब कापता कलम ही, किन्चित मात्र भी कुछ शेष लिखने मे असमर्थ हो ?
प्रतीक्षा (जब ७०वे साल मे प्रवेश करून्गा तब उन्हे यही कविता भेट करून्गा)
नयन अभिशप्त है,
प्रतीक्षा मे तुम्हारी चिरकाल तक!
मूक अधर की इस व्यथा को मै क्या बताऊ,
जो लिखा है जन्म से इसके भाल पर !
रीते शब्द है कोष से ,
मन आचवन को अब आतुर हुआ !
सान्ध्य के क्षणो मे ऐ सखे,
तुम्हारे दरश को ना जाने क्यो? मन व्याकुल हुआ!
प्रिये, पद पद्य का अभिषेक करने तेरे ,
रूह ने ना अब तक आस छोडी!
व्यर्थ होती कहा प्रतीक्षा प्यार की कभी,
सोच झुर्रियो ने नही आज तक उपवास तोडी !
आन्सुओ से भीगते अधर कापते रहे उम्र भर,
पर एक क्षण को ना इसने चातक सा अपनी प्यास तोडी.
बस अब तो धैर्य के पथ पर,
अहिल्या सा शिला बन.
तेरे आगमन की राह तकते,
शून्य को निहारता हू.
प्रणय के दो पुष्प अन्जलि मे रख,
इस नश्वर देह से मुक्त करने तुझे पुकारता हू.
अनुरोध इक जरा,
आकर मेरे रूह को पन्कज से नयन मे कैद कर लो.
घून्घट मे मुझको छिपा लो,
या फिर इक बार आन्सुओ की बून्द मे भर लो.
मै अकेला चलता थक गया हू,
मुझको अन्ग मे भर लो या फिर सन्ग मेरे,
अब महाप्रयाण का सफर कर लो.
प्रतीक्षा मे तुम्हारी चिरकाल तक!
मूक अधर की इस व्यथा को मै क्या बताऊ,
जो लिखा है जन्म से इसके भाल पर !
रीते शब्द है कोष से ,
मन आचवन को अब आतुर हुआ !
सान्ध्य के क्षणो मे ऐ सखे,
तुम्हारे दरश को ना जाने क्यो? मन व्याकुल हुआ!
प्रिये, पद पद्य का अभिषेक करने तेरे ,
रूह ने ना अब तक आस छोडी!
व्यर्थ होती कहा प्रतीक्षा प्यार की कभी,
सोच झुर्रियो ने नही आज तक उपवास तोडी !
आन्सुओ से भीगते अधर कापते रहे उम्र भर,
पर एक क्षण को ना इसने चातक सा अपनी प्यास तोडी.
बस अब तो धैर्य के पथ पर,
अहिल्या सा शिला बन.
तेरे आगमन की राह तकते,
शून्य को निहारता हू.
प्रणय के दो पुष्प अन्जलि मे रख,
इस नश्वर देह से मुक्त करने तुझे पुकारता हू.
अनुरोध इक जरा,
आकर मेरे रूह को पन्कज से नयन मे कैद कर लो.
घून्घट मे मुझको छिपा लो,
या फिर इक बार आन्सुओ की बून्द मे भर लो.
मै अकेला चलता थक गया हू,
मुझको अन्ग मे भर लो या फिर सन्ग मेरे,
अब महाप्रयाण का सफर कर लो.
तुम खुद बताओगे
बड़ी हसरत हुआ करती थी उन दिनों,
तुमसे मिलने की,
तुम्हारे कुछ पल चुराकर तुमसे बतिया लेने की।
तुम्हारे व्यक्तित्व के सौंदर्य में समाहित, सागर की गहराईयों को
अपने कर की लंबाईयों से नाप लेने की ।
पर जितना तुम्हे जानता गया,
तुम्हारी गहराईयों में जितना उतरते गया,
तुम उतनी ही और गहरी होती चली गयी ।
आज तक बस सिर्फ तुम्हे नाप ही तो रहा हूं,
यही सोंच कि,
उन गहराईयों में कहीं तो धरातल होगा ।
जब तुम्हे पहले-पहले जाना,
तो मुझे लगा कि तुम अम्बर सी उंची,
आधारहीन धरातल पर खड़ी, फिर भी तनी,
कभी इठलाती,कभी इतराती,कभी अपने रंग में भिगोती
सबको छांव देती वो नीलगगन की श्यामल छतरी हो,
इसीलिये उन दिनों मैं तुम्हे अम्बुद कहा करता था।
तुम्हारी गहराईयों में जब थोड़ा और उतरा,
तो ऐसा लगा जैसे,तुम तो अम्बुज हो,
वो तन्हाईयों और उलाहनाओं के कीचड़ में पलती
अपने गुलाबी नेत्रों की पंखुड़ियां फैलाये
पतितों के बीच पवित्रता की बुलंदियों को छूती,
एक खुशनुमा अहसास ।
इसीलिये कुछ दिनों तक,तुम्हे पंकजा कहने की भूल कर बैठा ।
तुम्हे थोड़ा और जाना,
तप की वेदी पर अपने जीवन की रोज बलि चढ़ाती,
खुद को किसी की पाखण्ड पूजा के संतोष के लिये,
अग्नि होम पर अनल को समर्पित घृत की तरह,
बुद्ध का आत्मिक सौंदर्य, महावीर का त्याग,
रानी लक्ष्मी का क्रोध और तिलक का उद्घोष ।
सबकुछ तो देखा तुममे,
इसीलिये कुछ दिनों तक मैं तुम्हे दामिनी कहता रहा ।
जब तुम्हे थोड़ा और जाना,
तुममे देखा धरा का धीर, धवल क्षीर,
तुम्हारी कभी उफ ना करने वाली पीर।
तुम्हारी अनूठी गाथा और विलक्षण व्यक्तित्व को,
तुम्हारी कविता में उन दिनों तलाशा करता।
तुम्हारे चरित्र को तुम्हारे अक्षरों की परछाई में पढ़ा करता।
और जब ना समझ सका तुम्हे,
तो तुम्हे वसुधा कहने लगा,
और आज तक यही कह रहा हूं ।
कभी तो तुम खुद बताओगे, कि तुम आखिर हो क्या?
तुमसे मिलने की,
तुम्हारे कुछ पल चुराकर तुमसे बतिया लेने की।
तुम्हारे व्यक्तित्व के सौंदर्य में समाहित, सागर की गहराईयों को
अपने कर की लंबाईयों से नाप लेने की ।
पर जितना तुम्हे जानता गया,
तुम्हारी गहराईयों में जितना उतरते गया,
तुम उतनी ही और गहरी होती चली गयी ।
आज तक बस सिर्फ तुम्हे नाप ही तो रहा हूं,
यही सोंच कि,
उन गहराईयों में कहीं तो धरातल होगा ।
जब तुम्हे पहले-पहले जाना,
तो मुझे लगा कि तुम अम्बर सी उंची,
आधारहीन धरातल पर खड़ी, फिर भी तनी,
कभी इठलाती,कभी इतराती,कभी अपने रंग में भिगोती
सबको छांव देती वो नीलगगन की श्यामल छतरी हो,
इसीलिये उन दिनों मैं तुम्हे अम्बुद कहा करता था।
तुम्हारी गहराईयों में जब थोड़ा और उतरा,
तो ऐसा लगा जैसे,तुम तो अम्बुज हो,
वो तन्हाईयों और उलाहनाओं के कीचड़ में पलती
अपने गुलाबी नेत्रों की पंखुड़ियां फैलाये
पतितों के बीच पवित्रता की बुलंदियों को छूती,
एक खुशनुमा अहसास ।
इसीलिये कुछ दिनों तक,तुम्हे पंकजा कहने की भूल कर बैठा ।
तुम्हे थोड़ा और जाना,
तप की वेदी पर अपने जीवन की रोज बलि चढ़ाती,
खुद को किसी की पाखण्ड पूजा के संतोष के लिये,
अग्नि होम पर अनल को समर्पित घृत की तरह,
बुद्ध का आत्मिक सौंदर्य, महावीर का त्याग,
रानी लक्ष्मी का क्रोध और तिलक का उद्घोष ।
सबकुछ तो देखा तुममे,
इसीलिये कुछ दिनों तक मैं तुम्हे दामिनी कहता रहा ।
जब तुम्हे थोड़ा और जाना,
तुममे देखा धरा का धीर, धवल क्षीर,
तुम्हारी कभी उफ ना करने वाली पीर।
तुम्हारी अनूठी गाथा और विलक्षण व्यक्तित्व को,
तुम्हारी कविता में उन दिनों तलाशा करता।
तुम्हारे चरित्र को तुम्हारे अक्षरों की परछाई में पढ़ा करता।
और जब ना समझ सका तुम्हे,
तो तुम्हे वसुधा कहने लगा,
और आज तक यही कह रहा हूं ।
कभी तो तुम खुद बताओगे, कि तुम आखिर हो क्या?
शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009
इस दीपावली २००९ पर उन्हे यह चन्द पन्क्तिया सादर समर्पित है.
दीपक की जलती बाती की गहराईयो मे,
झांककर तो कभी नही देखा.
पर मुझे यकीन है,
उनमे तुम्हारी तरह जज्बा जरूर होगा.
वरना कोई खुद जलकर,जहां को इस तरह रोशन नही किया करता.
झांककर तो कभी नही देखा.
पर मुझे यकीन है,
उनमे तुम्हारी तरह जज्बा जरूर होगा.
वरना कोई खुद जलकर,जहां को इस तरह रोशन नही किया करता.
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